चेन्नई. श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी मुनि श्री महापद्मसागरजी के सान्निध्य में रविवारीय शिविर का आयोजन हुआ। आईना नहीं शक्ल बदलों विषय के ऊपर आचार्य श्री के धारा प्रवाह वक्तव्य से श्रोतागण मंत्र मुग्ध हुए. आचार्य श्री ने कहा कि धर्म एवं संस्कृति पर प्राय: होने वाली बहस में यह भुला दिया जाता है कि भारत की पहचान सदा से धर्म एवं संस्कृति ही रही है।
ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां धर्म संस्कृति का आधार है, वहीं संस्कृति धर्म की संवाहिका है। दोनों ही अपने-अपने परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र के निर्माण एवं राष्ट्रीयता के संरक्षण में सहायक सिद्ध होते हैं। जहां धर्म अपनी स्वाभाविकता के साथ सामाजिक परिवेश का आधार बनता है, वहीं संस्कृति सामाजिक मूल्यों का स्थायी निर्माण करती है। कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि धर्म का सूत्र मानव के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करता है तो वहीं संस्कृति मानवीय संवेदनाओं को सामाजिक सरोकार से जोड़ती है।

इस तरह धर्म कालांतर में संस्कृति का रक्षण करता है और संस्कृति धर्म के आधार का उन्नयन करती है।जहां धर्म हमारे सर्वस्व का प्रतीक रहा है तो वहीं संस्कृति हमारी स्वाभाविक जीवनशैली की वाहिका रही है। दोनों ने ही भारतीय मूल्यों को जीवंत रखा है और संसार में इसी कारण से भारत का मान-सम्मान रहा है। प्राचीन समय में धर्म एक नागरिक के जीवन के उद्देश्यों का आधार था। धर्म मात्र प्रतीक नहीं होकर समग्र चेतना का स्तंभ था।
परिणामस्वरूप भारत की सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक व्यवस्था मजबूत थी। इस तरह भारतीय का जीवन शांत एवं सुखी था। तब संस्कृति, भारतीयता को परिभाषित करती थी और भारत की सारी व्यवस्थाएं संस्कृति पर आधारित थीं। संस्कृति का सौरभ ही हमारे राष्ट्र का सौरभ था। इस तरह से हमारी पारिवारिक एवं सामयिक पृष्ठभूमि निरंतर विकसित होती गई। हमारे वैचारिक दृष्टिकोण का ताना-बाना हमारी संस्कृति पर ही आधारित था और हमारा संपूर्ण जीवन उन्नति के चरम पर पहुंचता रहा।
धीरे-धीरे हमारी धार्मिक मान्यताएं और स्थिर होती गईं और संस्कृति का क्रमिक विकास होता गया। कहना गलत नहीं होगा कि धर्म और संस्कृति ने मिलकर हमारी भारतीयता को विकसित किया। यह भारतीय धर्म की विशेषता रही है कि वह जटिलताओं में जकड़ा न रहा और सतत चिंतन की अवधारणा को विकसित होने में सहायक सिद्ध हुआ, जिसके कारण अनेक भारतीय धर्मों का उदय हुआ।
जैन हिंदू एवं बाद में सिख धर्म ने अपनी चिंतनशैली को विकसित किया, भारत में धार्मिक स्वतंत्रता अवश्य रही, परंतु सांस्कृतिक एकता बनी रही। भारतीय संस्कृति के समग्र विकास में भारत के सभी धर्मों ने अपना-अपना योगदान दिया। इस प्रकार भारत की सामाजिक व्यवस्था धार्मिक एवं सांस्कृतिक होते हुए भी वैज्ञानिक विचारों को हमेशा आत्मसात करती रही। विकास की नई संभावनाओं को संबल प्रदान करती रही। रविवारीय शिविर का लाभ सा अमृतलालजी मिलापचंदजी मेहता परिवार ने लिया।