श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने प्रवचन के माध्यम से श्रद्धालुओं को संबोधित किया । उन्होंने कहा कि मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी होती है उसका अहंकार। अहंकार प्रगति का सबसे बड़ा बाधक तत्व है। जो साधक विनम्र एवं ऋजु नहीं होता, उसके लिये सत्य के दरवाजे नहीं खुल सकते। अहंकार के वशीभूत हुआ व्यक्ति यह सोचता है कि यदि मैं झुक गया और सह लिया तो लोग मुझे छोटा एवं कमजोर समझकर मेरी उपेक्षा करेंगे परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। वास्तव में देखा जाये तो नम्र या विनीत होना कमजोरी या कायरता की नहीं, महानता की निशानी है और इसमें से ही जीवन की सार्थकता उजागर होती है। भगवान महावीर की आर्षवाणी धम्मो शुद्धस्थ चिट्ठई जो ऋजुता और विनम्रता की गुणवत्ता को उजागर करती है।
ऋजु व्यक्ति ही सत्य की साधना कर सकता है क्योंकि ऋजुता और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अहंकार सत्य साधना की सबसे बड़ी बाधा है। प्रत्येक मनुष्य के मन में यह आकांक्षा रहती है कि वह महान कहलाये, यशस्वी कहलाये, लोग उसकी प्रशंसा करें, उसके बड़प्पन का गुणगान करें।
कोई भी व्यक्ति छोटा नहीं कहलाना चाहता। वस्तुतः हमारी सरलता, विनम्रता तथा ऋजुता जीवन की सार्थकता का मुख्य आधार है। महापुरुषों का कथन है कि झुकने वाला व्यक्ति कभी छोटा या कमजोर नहीं होता बल्कि वह बड़ा और मजबूत होता है। विनम्र एवं सत्यशोधक दृष्टि का ही परिणाम है कि महापुरुषों पर अहंकार हावी नहीं हो पाता है। फल से लदी हुई डाल झुकी हुई होती है साथ ही सहनशील भी। तराजू का वजनदार पलड़ा कम कीमतवाला तथा महत्वहीन होता है और उसी की कीमत भी अधिक होती है।
इसके विपरीत उठा हुआ पलड़ा कम कीमतवाला तथा महत्वहीन होता है। इसी प्रकार अहंकारी आदमी भी अपनी कृत्रिमता, चापलूसी से तना और अकड़ा होता है। वस्तुतः वह कमजोर होता है। इसलिए शीघ्र ही क्रुद्ध और उत्तेजित होकर भभकने लगता है। अहंकारी व्यक्ति अनुकूलता में अपनी मनुष्यता को छोड़ देता है। पैसे, प्रतिष्ठा, पदवी और पांडित्य को वह हजम नहीं कर सकता।
अतः उसे अपच हो जाता है और वह निरंकुश हो जाता है। इसी सन्दर्भ में आचार्य श्री ने कहा कि सफल व्यक्ति होने का प्रयास न करें, अपितु गरिमामय व्यक्ति बनने का प्रयास करें।