चेन्नई. आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरिजी मुनि श्री महापद्मसागरजी महाराज साहेब की निश्रा में श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में ममता देवी किरणकुमार जी का मंगलवार को मासोपवास यानी की एक महीने के उपवास का पारणा बड़े ही भावोल्लास पूर्वक संपन्न हुआ, आचार्य श्री का सुबह बाजे गाजे के साथ तपस्वी के निवासस्थान पर सकल श्री संघ के साथ पगलिया हुआ, आचार्य श्री ने तप की महिमा को विस्तार से समझाते हुए कहा कि तप आध्यात्मिक जीवन की आधार-शिला है। तपस्वियों के जीवन की साधारण घटना भी आम आदमी के लिए आश्चर्य व कौतूहल का विषय बन जाती है। तपस्वी अपने जीवन की दशा स्वयं निर्धारित करते हैं, जबकि सामान्य व्यक्तियों का जीवन पूर्णत: परिस्थितियों के अधीन होता है। तपस्वी तप की ऊर्जा से परिस्थिति की प्रतिकूलता को भी अपने अनुकूल बना लेते हैं। वस्तुत: तप करना या तपश्चर्या एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसकी कुछ मर्यादाएं हैं। सनक में आकर कुछ भी करते रहने का नाम तप नहीं है। नमक न खाना, नंगे पांव चलना, भूखे रहना आदि से शारीरिक कष्ट तो अवश्य होता है, किंतु कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं प्राप्त होता। सुनिश्चित संकल्प के साथ तपश्चर्या पर अमल गुरु के निर्देशन में ही करना चाहिए। तप से हमारे सुप्त संस्कारों का जागरण होता है और यह जागरण हमारे आध्यात्मिक विकास को गति देता है। तप का उद्देश्य मात्र ऊर्जा का अर्जन ही नहीं, उस ऊर्जा का संरक्षण व सुनियोजन भी है। जो अपनी ऊर्जा को संरक्षित कर लेता है वह सामर्थ्यवान हो जाता है। तपश्चर्या कोई चमत्कार न होकर स्वयं का परिष्कार है। जहां परिष्कार है वहां चमत्कार स्वत: होते हैं, क्योंकि परिष्कार से चित्ता ऊर्जावान होता है। अहंकार तप के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। तपस्या किए बगैर किसी को सिद्धि प्राप्त नहीं होती। इतिहास साक्षी है कि जैन धर्म के तीर्थंकर महावीर स्वामी को ज्ञान की प्राप्ति बारह वर्ष की कठोर तपस्या के बाद ही हुई थी।
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