धनुषाकार होंठ से दिल को बेधने वाले शब्द बाण न छोड़ें : देवेंद्रसागरसूरि

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श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में पूज्य आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने अपने धर्म प्रवचन में कहा कि रोजाना देव-दर्शन करना उत्तम है।

जप, शास्त्र-स्वाध्याय करना अच्छी आदत है। दिव्य-पुरुषों के संस्मरण पढ़ना भी उत्तम है। लेकिन सर्वोत्तम है, एकांत में बैठकर, अपने अंदर झांककर यह देखना कि इतना सब कुछ करते रहने पर हमारे अंदर क्या कोई बदलाव हुआ है, हमारे अहंकार में कुछ कमी आई या नहीं,  हम समझ गए हैं कि प्रकृति-प्रदत्त उपहार सिर्फ हमारे लिए ही नहीं, बल्कि उस पर सभी जीवों का समान अधिकार है।

ऐसा है तब निश्चित रूप से हम सही मार्ग पर हैं और प्रभु हमसे अब ज्यादा दूर नहीं हैं। वे आगे बोले कि यह ब्रह्मांड एक बगीचा है। बगीचा भी ऐसा आश्चर्यजनक कि हम इसके फूल-पत्र ही नहीं, स्वयं इसके माली भी हैं। इसलिए हमारा यह कर्तव्य और दायित्व है कि हम न केवल फूलों की तरह खुद हंसते-खिलखिलाते रहें, माली बनकर सभी को अपने सामर्थ्य भर खुशियों से सींचे, उन्हें हंसने-खिलखिलाने का मौका दें।

किसी हंसते हुए व्यक्ति को रुला देने में कोई बहादुरी नहीं है, किसी को पीड़ा पहुंचाने में कोई प्रतिष्ठा नहीं मिलती। हमारी शक्ति का सही उपयोग तभी होगा अगर हम किसी रोते हुए व्यक्ति के चेहरे से आंसू पोंछ सकें, किसी उदास चेहरे पर एक मुस्कान खिला सकें, किसी को थोड़ी सी प्रसन्नता दे सकें। ऐसा करने के प्रतिफल के रूप में हमें भी एक अनुपम संतुष्टि और प्रसन्नता का आभास होगा।

कठपुतली बनने से पहले लकड़ी किसी भी ढांचे में ढलने के लिए स्वतंत्र है। कठपुतली बनने के बाद उसकी नियति पर्दे के पीछे के कलाकार के हाथों के इशारे पर मंच पर नाचना बन जाती है। ठीक इसी तरह जैसे ही हम सुख-दुख की माया में फंस जाते हैं, तो हमारा अपना अस्तित्व क्षीण होता जाता है।

हम सांसारिक हानि-लाभ के अधीन हो जाते हैं। अपने आपको अपने हित-अहित तक ही सीमित कर लेते हैं। अपने अंतर की इस दुर्बलता के वशीभूत होकर हम अपनी अतुलनीय शक्तियों का प्रयोग मानवीय मूल्यों के विरुद्ध करने लगते हैं। हमें यह शक्तियां स्वयं और दूसरे के कल्याण और जीवमात्र की सेवा के लिए उपहार में दी गई हैं।

हम सभी को धनुषाकार होंठ मिले हैं। नैतिकता का तकाजा है कि इनसे किसी के दिल को बेधने वाले शब्द बाण न छोड़ें। हमारी मधुर बातें सुनने वाले को कोमल स्पर्श की अनुभूति दे जाए। फव्वारे में गंदे नाले का पानी भरकर हमें ऐसी आशा नहीं करनी चाहिए कि जब यह फव्वारा नीचे की तरफ आए, तब उसमें से गंगा जल निकले। हमें तो हर स्थिति में चंदन बने रहना है। हमें कोई घिसे या काटे, दोनों स्थितियों में ही अपनी सुगंध नहीं छोड़ना है।

हमारा हर संभव प्रयास हो कि हम गन्ना नहीं, गुड़ बनें कि जिसे जिधर से भी खाओ मिठास ही मिठास देता है। जिंदगी बांसुरी की तरह है। इसमें भी विकारों, अभावों और खालीपन के अनेक छेद हैं। अगर हम निपुणता और सजगता के साथ इसका उपयोग करें तो इसकी मनमोहक और सुरीली तानों का आनंद ले सकते हैं। अपनी श्रेष्ठता का उपयोग किसी की सहायता कर करें। किसी की मुश्किलों को आसान करना ही तो हमारी शक्ति की सबसे बड़ी उपलब्धि है

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