चेन्नई . श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन मूर्तिपूजक जैन संघ में पूज्य आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने धर्म वाणी का श्रवण कराते हुए कहा कि धर्म की स्थापना को एक साधारण मनुष्य केवल पूजा स्थलों की स्थापना से ही समझता है, जबकि इसके लिए धर्म शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है।
मानव जीवन को सुचारु रूप से चलाने और सृष्टि के विकास के लिए हर संप्रदाय के महापुरुषों ने आचरण संहिता बनाई, जिसका मुख्य उद्देश्य था कि मनुष्य का मनुष्य के प्रति इस प्रकार का व्यवहार हो जिसके द्वारा दूसरे मानव को पीड़ा न हो और प्रकृति का संरक्षण हो।
उस समय आज के समान कानून की किताबें नहीं थीं और इसी आचरण संहिता को धर्म नाम से पुकारा जाने लगा। हर प्रकार की चोरी, झूठ बोलना, भावनात्मक और शारीरिक हिंसा और स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार कानून के अनुसार भी गलत हैं और इसी प्रकार से धर्म की दृष्टि से भी अनुचित है।
इसलिए धर्म स्थापना का वास्तविक तात्पर्य है मनुष्य को उस मार्ग की ओर प्रेरित करना जिसके अनुसरण करने से वह परपीड़ा जैसे अपराध से बच सके। यह एक अटल सत्य है कि दूसरे को पीड़ा देने वाले को भी उतनी ही मानसिक पीड़ा बदले में मिलती है। हालांकि वह इसका प्रदर्शन नहीं करता, परंतु यह सब उसके मन में एकत्र होकर उसे मानसिक व्याधियों के साथ शारीरिक व्याधियां भी देती हैं। इसीलिए कहा है, दूसरों का हित करने से बड़ा कोई धर्म नहीं और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा अधर्म या पाप कोई नहीं है।
हित और पीड़ा ऐसे दो भाव हैं, जिनके द्वारा मानव व्यवहार के सकारात्मक और नकारात्मक भावों का पूरा चित्रण हो जाता है। दूसरों का हित करने वाला व्यक्ति सब प्राणियों की सेवा में परम आनंद का अनुभव करेगा और दूसरों को कष्ट देने वाला क्रोध, लोभ, मोह और ईष्र्या से ग्रस्त होकर ही दूसरों को कष्ट देने की सोचता है।
इसलिए पूजा स्थलों तक ही धर्म को सीमित न करके प्राणियों की सेवा का उदाहरण स्थापित करके धर्म की स्थापना सच्चे अर्थों में की जानी चाहिए। तभी उनसे प्रेरणा लेकर एक साधारण मनुष्य उनके मार्ग का अनुसरण करता हुआ सच्चा धार्मिक बन सके।