श्रद्धा का दीया आँधी तूफ़ान आपत्ति विपत्ति  में भी जलते रहना चाहिए : देवेंद्रसागरसूरि

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चेन्नई। श्री सुमतिवल्लभ जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में जनकल्याणकारी चातुर्मास के दौरान धर्मसभा को संबोधित कार्य हुए आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने कहा कि बंधन का प्रमुख कारण आसक्ति है अर्थात् संसार की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति जरूरत से अधिक लगाव होना। शास्त्रीय मतानुसार हमारी इंद्रियां अपने-अपने स्वाद की ओर लालायित रहती ही हैं।

जिस इंद्रिय का जहां लगाव है, वह उसी ओर भागती है, ये लगाव ही बांधने का कारण बनते है।वे आगे बोले की यद्यपि लोग इन पर कठोरता से नियंत्रण करते हैं, पर इस मन व इंद्रियों को जैसे ही आजादी मिलती है, ये अपनी मूल प्रवृत्तियों का प्रदर्शन शुरू कर देते हैं। क्योंकि यदि हम इन्द्रियों को उपरी दबाव से नियंत्रित करते हैं, तो ये इन्द्रियां अवसर पाकर अधिक विस्फोटक रूप धारण कर हमारे सामने उपस्थित होंगी।

अतः मन अथवा इन्द्रियों का दमन करना कोई इलाज नहीं है।इन्द्रियों का दमन करने की हमारे तपस्वियों ने बड़ी चेष्टा की है। उन्होंने इन्द्रियों के मायाजाल से छूटने के लिए अपने शरीर को खूब सताया। लेकिन हठपूर्वक मन पर नियंत्रण पाने में कामयाब नहीं हो सके। इसलिए ट्टषियों, आत्मयोगियों ने बताया कि इनका एक मात्र रास्ता है मानसिक विकारों का परित्याग एवं परिष्कार। परिष्कार एवं परिशोधन के लिए हमें जीवन शुद्धता की ओर बढ़ना होगा। आचार्य श्री आगे बोले की मन को बदलने के लिए जिस सीढ़ी का प्रयोग करना है, उसमें  संत वाक्यों के प्रति ‘श्रद्धा’ प्रमुख है।

श्रद्धा से ही समर्पण भाव जागता है। श्रद्धा से अन्तः में अनंत दिव्य भाव जागते हैं और गुरु व परमात्मा  की कृपा मिलती है।श्रद्धा का दीया आंधियों और तूफान में भी जलना जानता है और परमात्मा के दरबार का दिया बनकर प्रकाशित होता रहता है। इसलिए अपने मन पर श्रद्धा व विश्वास के दिये को को दृढ़ कीजिए।कहते हैं मनः सत्येन शुद्धते अर्थात् सत्य अपनाओ, बनावटीपन और दिखावा छोड़िये, सीधे सहज रहिए। शुद्ध मन से भगवान का परम भक्त बनकर अपने को प्रभु के चरणों में समर्पित करिये। इससे धीरे-धीरे मन बदलने लगेगा। जब मन बदलेगा, तो आदते बदलेगी, अंततः जीवन शांति, सुख, प्रेम, तृप्ति से भर उठेगा।

तब हम संसार का काम अवश्य करेंगे, लेकिन ध्यान भगवान की तरफ रहेगा। कार्य के साथ बैठते-उठते भगवान का नाम ध्यान रहेगा।  माला हाथ में रहे न रहे, पर मन में अच्छा संस्कार जगे। भगवान का भजन हो तथा अनर्थों का परित्याग हो। तब हम मन व जीवन दोनों बदलने में सफल होंगे। तब गुरु कार्यों में सेवा दान कर सकेंगे। जितना सद् के इस अभ्यास से आनंद आएगा। तब हमें गुणों को ग्रहण करने लगेंगे, कमजोरियों पर विजय प्राप्त करेंगे।

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